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कविता

प्यासे ही छोड़ गई

बृजनाथ श्रीवास्तव


सोचो तो
घाटों को नदिया क्यों छोड़ गई।

हमने ही छाया के
तट-बिरवे काट दिए
हमने ही कूड़े से
तन उसके पाट दिए

धूप तपे
मृगछौने प्यासे ही छोड़ गई।

हमने ही देह-नदी
बंधन में बाँध दिया
रेतीले अंधड़ का
हमने ही साथ दिया

करती क्या
अपनी ही सीमाएँ तोड़ गई।

अँगड़ाई लेती थी
फसलें, पुरवाई में
दुग्धा श्यामाएँ थीं
रहती अँगनाई में

सबके सब
रिश्ते अब सूखे से जोड़ गई।

लगता मर जाएगी
यह सृष्टि पियासी कल
अब न कभी छाएँगे
घाटी में फिर बादल

सोचो तो
राहों को नदिया क्यों मोड़ गई।


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